दुनिया बदल गई थी कोई ग़म न था मुझे
तुम भी बदल गए थे ये हैरानी खा गई
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तुझ से मैं जंग का एलान भी कर ही दूँगा
वस्ल ने जब मिरी तख़्लीक़ को ज़ंजीर क्या
नहीं है जिस का हल अब तो कोई 'नदीम' बस इक सिवा तुम्हारे
अपनी उलझन को बढ़ाने की ज़रूरत क्या है
साहिल पे तेरे ब'अद की वीरानी खा गई
दिसम्बर
तिरी क़ुर्बतें हैं सकूँ जान-ए-जानाँ
तमाम उम्र तिरे इंतिज़ार में हमदम
उम्र भर रहना है ताबीर से गर दूर तुम्हें
सरहद
तू समझता है गर फ़ुज़ूल मुझे
मोहब्बत