ढूँढती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
आप ने महफ़िल से उठवा कर कहाँ रक्खा मुझे
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कहने वाले वो सुनने वाला मैं
आ गई दिल की लगी बढ़ के रग-ए-जाँ के क़रीब
ग़म-ओ-अंदोह का लश्कर भी चला आता है
ढूँडती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
हाथ रहते हैं कई दिन से गरेबाँ के क़रीब
आ के बज़्म-ए-हस्ती में क्या बताएँ क्या पाया
छोड़ भी देते मोहतसिब हम तो ये शग़्ल-ए-मय-कशी
दूसरों को क्या कहिए दूसरी है दुनिया ही
क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के
इंतिज़ाम-ए-रोज़-ए-इशरत और कर ऐ ना-मुराद
खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ अहल-ए-इश्क़ को
उसी की देन है ग़म में गिला नहीं करता