आ के बज़्म-ए-हस्ती में क्या बताएँ क्या पाया
हम को था ही क्या लेना बुत मिले ख़ुदा पाया
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अहल-ए-जुनूँ पे ज़ुल्म है पाबंदी-ए-रुसूम
शम-ए-कुश्ता की तरह मैं तिरी महफ़िल से उठा
चाल और है दुनिया की हमारा है चलन और
छोड़ भी देते मोहतसिब हम तो ये शग़्ल-ए-मय-कशी
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़ियादा पाँव फैलाती है क्यूँ
रखता है तल्ख़-काम ग़म-ए-लज़्ज़त-ए-जहाँ
भाग कि मंज़िल-ए-क़रार उम्र की रहगुज़र नहीं
खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
इंतिज़ाम-ए-रोज़-ए-इशरत और कर ऐ ना-मुराद
इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो
ढूँढ तो बुत भी यहीं मिल जाएँगे मर्द-ए-ख़ुदा
तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था