रखता है तल्ख़-काम ग़म-ए-लज़्ज़त-ए-जहाँ
क्या कीजिए कि लुत्फ़ नहीं कुछ गुनाह का
Jaun Eliya
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Gulzar
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वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का
खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ अहल-ए-इश्क़ को
कभी सोज़-ए-दिल का गिला किया कभी लब से शोर-ए-फ़ुग़ाँ उठा
कर मुरत्तब कुछ नए अंदाज़ से अपना बयाँ
मिल गए तुम हाथ उठा कर मुझ को सब कुछ मिल गया
आज मय-ख़ाने में बरकत ही सही
अब कहाँ गुफ़्तुगू मोहब्बत की
हम हैं तो न रक्खेंगे इतना तुझे अफ़्सुर्दा
ज़िक्र-ए-शराब-ए-नाब पे वाइ'ज़ उखड़ गया
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना
आख़िर को राहबर ने ठिकाने लगा दिया
हमें जो याद है हम तो उसी से काम लेते हैं