रहती है शम्स-ओ-क़मर को तिरे साए की तलाश
रौशनी ढूँढती फिरती है अँधेरा तेरा
Wasi Shah
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हम तो मस्जिद से भी मायूस ही आए 'नातिक़'
वो मिज़ाज पूछ लेते हैं सलाम कर के देखो
ग़म-ओ-अंदोह का लश्कर भी चला आता है
ऐ बादा-कश गई है मय-ए-ऐश किस के साथ
कर दिया दहर को अंधेर का मस्कन कैसा
सब कुछ मुझे मुश्किल है न पूछो मिरी मुश्किल
तो हमें कहता है दीवाना को दीवाने सही
मय को मिरे सुरूर से हासिल सुरूर था
गुज़रती है मज़े से वाइ'ज़ों की ज़िंदगी अब तो
वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी
सर्द हो जाती है फ़िक्र-ए-जाह-ए-दुनिया जिस के बअ'द
रह के अच्छा भी कुछ भला न हुआ