मय को मिरे सुरूर से हासिल सुरूर था
मैं था नशे में चूर नशा मुझ में चूर था
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रस्म-ए-तलब में क्या है समझ कर उठा क़दम
तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे
इंतिज़ाम-ए-रोज़-ए-इशरत और कर ऐ ना-मुराद
कर दिया दहर को अंधेर का मस्कन कैसा
ज़ाहिर न था नहीं सही लेकिन ज़ुहूर था
छोड़ भी देते मोहतसिब हम तो ये शग़्ल-ए-मय-कशी
ढूँडती है इज़्तिराब-ए-शौक़ की दुनिया मुझे
ऐसे बोहतान लगाए कि ख़ुदा याद आया
मेरे सीने में नहीं है तो ये समझो कि न था
देखता रहता हूँ अक्सर शाम-ए-क़ुदरत देख कर
खा गई अहल-ए-हवस की वज़्अ अहल-ए-इश्क़ को
वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का