घर बनाने की बड़ी फ़िक्र है दुनिया में हमें
साहब-ए-ख़ाना बने जाते हैं मेहमाँ हो कर
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जुनूँ तलाश में है पा न ले बहार मुझे
इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो
बंदगी कीजिए मगर किस की
क्या इरादे हैं वहशत-ए-दिल के
जो बला आती है आती है बला की 'नातिक़'
अब कहें किस से कि उन से बात करना है गुनाह
आख़िर को राहबर ने ठिकाने लगा दिया
कश्ती है घाट पर तू चले क्यूँ न दूर आज
फिर चाक-दामनी की हमें क़द्र क्यूँ न हो
ऐसे बोहतान लगाए कि ख़ुदा याद आया
कुछ नहीं अच्छा तो दुनिया में बुरा भी कुछ नहीं
बज़्म-ए-दुनिया जिस को कहते हैं वो पागल-ख़ाना था