सर से दयार-ए-ग़म के सनीचर उतार दे
मंगल है जिस में जा के वो जंगल उठा तो ला
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हो गई आवारागर्दी बे-घरी की पर्दा-दार
जीने देगा भी हमें ऐ दिल जिएँ भी या न हम
ऐ शब-ए-हिज्राँ ज़ियादा पाँव फैलाती है क्यूँ
इस ख़ाक-दान-ए-दहर में घुटता अगर है दम
अब कहाँ गुफ़्तुगू मोहब्बत की
उसी की देन है ग़म में गिला नहीं करता
ऐ निगाह-ए-मस्त उस का नाम है कैफ़-ए-सुरूर
वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का
रखता है तल्ख़-काम ग़म-ए-लज़्ज़त-ए-जहाँ
ऐ जुनूँ बाइस-ए-बदहाली-ए-सहरा क्या है
पाबंद-ए-दैर हो के भी भूले नहीं हैं घर
हाँ ये तो बता ऐ दिल-ए-महरूम-ए-तमन्ना