क़िस्मत में गर हमारी ये मय है तो साक़िया
बे-इख़्तियार आप से शीशा करेगा जस्त
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खोली जो टुक ऐ हम-नशीं उस दिल-रुबा की ज़ुल्फ़ कल
कहते हैं जिस को 'नज़ीर' सुनिए टुक उस का बयाँ
टुक होंट हिलाऊँ तो ये कहता है न बक बे
मुंतज़िर उस के दिला ता-ब-कुजा बैठना
निकले हो किस बहार से तुम ज़र्द-पोश हो
देख कर कुर्ते गले में सब्ज़ धानी आप की
उसी की ज़ात को है दाइमन सबात-ओ-क़याम
झोंपड़ा
उस ज़ुल्फ़ ने हम से ले के दिल बस्ता किया
बाग़ में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल
शहर-ए-दिल आबाद था जब तक वो शहर-आरा रहा
महादेव-जी का ब्याह