हम दिल से जो चाहते हैं ऐ जान तुम्हें
बे-कल हूँ अगर न देखें एक आन तुम्हें
तुम पास बिठाओ तो ज़रा बैठें हम
मुश्किल है हमें तो और है आसान तुम्हें
Ahmad Faraz
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चाहत के अब इफ़शा-कुन-ए-असरार तो हम हैं
आग़ोश-ए-तसव्वुर में जब मैं ने उसे मस़्का
सहर जो निकला मैं अपने घर से तो देखा इक शोख़ हुस्न वाला
हम ऐसे कब थे कि ख़ुद बदौलत यहाँ भी करते क़दम नवाज़िश
न लज़्ज़तें हैं वो हँसने में और न रोने में
बंदे के क़लम हाथ में होता तो ग़ज़ब था
न सुर्ख़ी ग़ुंचा-ए-गुल में तिरे दहन की सी
ये जवाहिर-ख़ाना-ए-दुनिया जो है बा-आब-ओ-ताब
करने लगा दिल तलब जब वो बुत-ए-ख़ुश-मिज़ाज
ऐ दिल अपनी तू चाह पर मत फूल
आन रखता है अजब यार का लड़ कर चलना
उस ज़ुल्फ़ ने हम से ले के दिल बस्ता किया