ख़ूब गए परदेस कि अपने दीवार-ओ-दर भूल गए
शीश-महल ने ऐसा घेरा मिट्टी के घर भूल गए
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अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे
जब ज़बानों में यहाँ सोने के ताले पड़ गए
कुछ देर सादगी के तसव्वुर से हट के देख
आग दुनिया की लगाई हुई बुझ जाएगी
खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए
मैं एक ज़र्रा बुलंदी को छूने निकला था
किसी ने हाथ बढ़ाया है दोस्ती के लिए
साथ चलना है तो फिर छोड़ दे सारी दुनिया
ये हैं तैराक मगर हाल ये इन के देखे
मैं ने दुनिया छोड़ दी लेकिन मिरा मुर्दा बदन
आ गया याद उन्हें अपने किसी ग़म का हिसाब
ता उम्र फिर न होगी उजालों की आरज़ू