मैं एक ज़र्रा बुलंदी को छूने निकला था
हवा ने थम के ज़मीं पर गिरा दिया मुझ को
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Wasi Shah
Jaun Eliya
Habib Jalib
Parveen Shakir
Gulzar
Javed Akhtar
Faiz Ahmad Faiz
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Allama Iqbal
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(878) Peoples Rate This
इस लिए चल न सका कोई भी ख़ंजर मुझ पर
ता उम्र फिर न होगी उजालों की आरज़ू
किसी ने हाथ बढ़ाया है दोस्ती के लिए
आ गया याद उन्हें अपने किसी ग़म का हिसाब
कौन पहचाने मुझे शब भर तो ख़तरों में रहा
ज़ख़्म कितने तिरी चाहत से मिले हैं मुझ को
ख़ूब गए परदेस कि अपने दीवार-ओ-दर भूल गए
मैं ने दुनिया छोड़ दी लेकिन मिरा मुर्दा बदन
ये हैं तैराक मगर हाल ये इन के देखे
अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे
आग दुनिया की लगाई हुई बुझ जाएगी
रोज़ ख़्वाबों में नए रंग भरा करता था