ज़ख़्म कितने तिरी चाहत से मिले हैं मुझ को
सोचता हूँ कि कहूँ तुझ से मगर जाने दे
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जब ज़बानों में यहाँ सोने के ताले पड़ गए
मैं एक क़र्ज़ हूँ सर से उतार दे मुझ को
धुआँ बना के फ़ज़ा में उड़ा दिया मुझ को
अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे
आ गया याद उन्हें अपने किसी ग़म का हिसाब
जब न आने की क़सम आप ने खा रक्खी थी
इस लिए चल न सका कोई भी ख़ंजर मुझ पर
ये हैं तैराक मगर हाल ये इन के देखे
कौन पहचाने मुझे शब भर तो ख़तरों में रहा
खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्फ़ लिए
रोज़ ख़्वाबों में नए रंग भरा करता था