अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे
तेरा मुजरिम हूँ मुझे डूब के मर जाने दे
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ख़ूब गए परदेस कि अपने दीवार-ओ-दर भूल गए
इस लिए चल न सका कोई भी ख़ंजर मुझ पर
जब न आने की क़सम आप ने खा रक्खी थी
ता उम्र फिर न होगी उजालों की आरज़ू
कौन पहचाने मुझे शब भर तो ख़तरों में रहा
साथ चलना है तो फिर छोड़ दे सारी दुनिया
ज़ख़्म कितने तिरी चाहत से मिले हैं मुझ को
मैं एक ज़र्रा बुलंदी को छूने निकला था
याद नहीं क्या क्या देखा था सारे मंज़र भूल गए
धुआँ बना के फ़ज़ा में उड़ा दिया मुझ को
किसी ने हाथ बढ़ाया है दोस्ती के लिए