बरस रही थी बारिश बाहर
और वो भीग रहा था मुझ में
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नया लिबास पहन कर भी
मेरी आँखों को मिरी शक्ल दिखा दे कोई
नींद जब ख़्वाब को पुकारती है
गलियाँ उदास खिड़कियाँ चुप दर खुले हुए
बिखर के जाता कहाँ तक कि मैं तो ख़ुशबू था
कैसा तारा टूटा मुझ में
तुझ को लिखना है तो ऐसा कोई सफ़हा लिख दे
मिट्टी पे कोई नक़्श भी उभरा न रहेगा
कभी करना हो अंदाज़ा जब अपने दर्द का मुझ को
चलते चलते मैं उस को घर ले आया
जागते हैं सोते हैं
आज दरीचे में वो आना भूल गया