चलते चलते मैं उस को घर ले आया
वो भी अपना हाथ छुड़ाना भूल गया
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उस ने ख़त में भेजे हैं
ये तेरे मिरे हाथ
मिट्टी से कुछ ख़्वाब उगाने आया हूँ
रात किनारा दरिया दिन
नया लिबास पहन कर भी
पत्थर होता जाता हूँ
तुझ को लिखना है तो ऐसा कोई सफ़हा लिख दे
गलियाँ उदास खिड़कियाँ चुप दर खुले हुए
वो बिस्तर में पड़ी रही
हर नक़्श है वजूद-ए-फ़ना मेरे सामने
मिट्टी पे कोई नक़्श भी उभरा न रहेगा
यूँ तुझे देख के चौंक उठती हैं सोई यादें