यूँ तुझे देख के चौंक उठती हैं सोई यादें
जैसे सन्नाटे में आवाज़ लगा दे कोई
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ख़्वाब क्या था जो मिरे सर में रहा
तुझ को लिखना है तो ऐसा कोई सफ़हा लिख दे
ख़ाक उगाती हैं सूरतें क्या क्या
नींद जब ख़्वाब को पुकारती है
मिट्टी से कुछ ख़्वाब उगाने आया हूँ
मिट्टी पे कोई नक़्श भी उभरा न रहेगा
बरस रही थी बारिश बाहर
कोई मुझ को ढूँढने वाला
चलते चलते मैं उस को घर ले आया
पहले इंकार बहुत करता है