है शाम अभी क्या है बहकी हुई बातें हैं
कुछ रात ढले साक़ी मय-ख़ाना सँभलता है
Jaun Eliya
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ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
दिया ख़ामोश है लेकिन किसी का दिल तो जलता है
तग़य्युरात के आलम में ज़िंदगानी है
उस दिल की मुसीबत कौन सुने जो ग़म के मुक़ाबिल आ जाए
अपनी दुनिया ख़ुद ब-फ़ैज़-ए-ग़म बना सकता हूँ मैं
हस्ती का नज़ारा क्या कहिए मरता है कोई जीता है कोई
रंग यहाँ बहुत मगर रंग से काम भी नहीं
ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए
भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती
जाँ-बाज़ों के लब पर भी अब ऐश का नाम आया
क़ामत-ए-दिल-रुबा पर शबाब आ गया
दुनिया सँवर गई है निज़ाम-ए-दिगर के बा'द