हक़ीक़त जिस जगह होती है ताबानी बताती है
कोई पर्दे में होता है तो चिलमन जगमगाती है
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क़ामत-ए-दिल-रुबा पर शबाब आ गया
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
उसी को ज़िंदगी का साज़ दे के मुतमइन हूँ मैं
नफ़स नफ़स पे मुझे याद आए जाते हैं
ये नज़्म-ए-गुरेज़ाँ है बरहम-ज़दनी पहले
अंजाम-ए-वफ़ा ये है जिस ने भी मोहब्बत की
पंखुड़ी कोई गुलिस्ताँ से सबा क्या लाई
मेरे लिए क्या है कुछ भी नहीं
पैराहन-ए-रंगीं से शोला सा निकलता है
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं