उसी को ज़िंदगी का साज़ दे के मुतमइन हूँ मैं
वो हुस्न जिस को हुस्न-ए-बे-सबात कहते आए हैं
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हुस्न जितना ही सादा होता है
तग़य्युरात के आलम में ज़िंदगानी है
बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
हक़ीक़त जिस जगह होती है ताबानी बताती है
किस बेबसी के साथ बसर कर रहा है उम्र
दिया साक़ी ने अव्वल रोज़ वो पैमाना मस्ती में
मिरा दिल न था अलम-आश्ना कि तिरी अदा पे नज़र पड़ी
भला कब देख सकता हूँ कि ग़म नाकाम हो जाए
मआज़-अल्लाह मय-ख़ाने के औराद-ए-सहर-गाही
कभी झूटे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते
नफ़स नफ़स पे मुझे याद आए जाते हैं
भुलाता हूँ मगर ग़म की दरख़शानी नहीं जाती