मआज़-अल्लाह मय-ख़ाने के औराद-ए-सहर-गाही
अज़ाँ में कह गया मैं एक दिन या पीर-ए-मय-ख़ाना
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बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
मैं ने कभी नज़र न की दिल-कशी-ए-हयात पर
सरक कर आ गईं ज़ुल्फ़ें जो इन मख़मूर आँखों तक
ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
पैराहन-ए-रंगीं से शोला सा निकलता है
याद आती रही भुला न सके
यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
शौक़ था शबाब का हुस्न पर नज़र गई
नफ़स नफ़स पे मुझे याद आए जाते हैं
इक नज़र का फ़साना है दुनिया
क़ामत-ए-दिल-रुबा पर शबाब आ गया
कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी