सरक कर आ गईं ज़ुल्फ़ें जो इन मख़मूर आँखों तक
मैं ये समझा कि मय-ख़ाने पे बदली छाई जाती है
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याद आती रही भुला न सके
इक नज़र का फ़साना है दुनिया
मैं अभी से किस तरह उन को बेवफ़ा कहूँ
हम ने भी निगाहों से उन्हें छू ही लिया है
उस दिल की मुसीबत कौन सुने जो ग़म के मुक़ाबिल आ जाए
हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
मय-ख़ाने में बढ़ती गई तफ़रीक़-ए-निहाँ और
पंखुड़ी कोई गुलिस्ताँ से सबा क्या लाई
ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
मैं तिनकों का दामन पकड़ता नहीं हूँ
धड़कनें दिल की गिने ख़ूँ में रवानी माँगे