सलीक़ा जिन को होता है ग़म-ए-दौराँ में जीने का
वो यूँ शीशे को हर पत्थर से टकराया नहीं करते
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मैं अभी से किस तरह उन को बेवफ़ा कहूँ
मय-ख़ाने में बढ़ती गई तफ़रीक़-ए-निहाँ और
सरक कर आ गईं ज़ुल्फ़ें जो इन मख़मूर आँखों तक
उस दिल की मुसीबत कौन सुने जो ग़म के मुक़ाबिल आ जाए
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं
फ़िक्र-ए-नौ ज़ौक़-ए-तपाँ से आई है
पंखुड़ी कोई गुलिस्ताँ से सबा क्या लाई
मआज़-अल्लाह मय-ख़ाने के औराद-ए-सहर-गाही
ये नज़्म-ए-गुरेज़ाँ है बरहम-ज़दनी पहले
ज़ाहिद असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ न हो सका