यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
कि शबनम के लिए दामन तो फैलाया नहीं करते
Habib Jalib
Parveen Shakir
Anwar Masood
Javed Akhtar
Allama Iqbal
Wasi Shah
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Faiz Ahmad Faiz
Mohsin Naqvi
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Gulzar
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कभी झूटे सहारे ग़म में रास आया नहीं करते
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
उसी को ज़िंदगी का साज़ दे के मुतमइन हूँ मैं
हक़ीक़त जिस जगह होती है ताबानी बताती है
ज़माना याद करे या सबा करे ख़ामोश
ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए
धड़कनें दिल की गिने ख़ूँ में रवानी माँगे
हाथ से दुनिया निकलती जाएगी
अपनी दुनिया ख़ुद ब-फ़ैज़-ए-ग़म बना सकता हूँ मैं
कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी
क़ामत-ए-दिल-रुबा पर शबाब आ गया
मैं अभी से किस तरह उन को बेवफ़ा कहूँ