ज़माना याद करे या सबा करे ख़ामोश
हम इक चराग़-ए-मोहब्बत जलाए जाते हैं
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भला कब देख सकता हूँ कि ग़म नाकाम हो जाए
हक़ीक़त जिस जगह होती है ताबानी बताती है
हम रिवायात को पिघला के 'नुशूर'
तारीख़-ए-जुनूँ ये है कि हर दौर-ए-ख़िरद में
कभी सुनते हैं अक़्ल-ओ-होश की और कम भी पीते हैं
ये नज़्म-ए-गुरेज़ाँ है बरहम-ज़दनी पहले
यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
नई दुनिया मुजस्सम दिलकशी मालूम होती है
हाथ से दुनिया निकलती जाएगी
कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी
ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए