ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए
आइनों के दरमियाँ से आई है
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सहर और शाम से कुछ यूँ गुज़रता जा रहा हूँ मैं
याद आती रही भुला न सके
मैं अभी से किस तरह उन को बेवफ़ा कहूँ
तेज़-तर लहजा-ए-गुफ़्तार किया है हम ने
हस्ती का नज़ारा क्या कहिए मरता है कोई जीता है कोई
दुनिया की बहारों से आँखें यूँ फेर लीं जाने वालों ने
धड़कनें दिल की गिने ख़ूँ में रवानी माँगे
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
दिल-ओ-दिलबर सही अब ख़्वाब से बेदार हैं दोनों
हसरत-ए-फ़ैसला-ए-दर्द-ए-जिगर बाक़ी है
ज़ीस्त मिलती है उम्र-ए-फ़ानी से
ख़ाक और ख़ून से इक शम्अ जलाई है 'नुशूर'