ज़िंदगी क़रीब है किस क़दर जमाल से
जब कोई सँवर गया ज़िंदगी सँवर गई
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वक़्त का क़ाफ़िला आता है गुज़र जाता है
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
हस्ती का नज़ारा क्या कहिए मरता है कोई जीता है कोई
मैं अभी से किस तरह उन को बेवफ़ा कहूँ
ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
लम्हे उलझन के क़रीब आ पहुँचे
हक़ीक़त जिस जगह होती है ताबानी बताती है
हर ज़र्रा-ए-ख़ाकी को किरन हम ने बनाया
बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
मिरा दिल न था अलम-आश्ना कि तिरी अदा पे नज़र पड़ी
तारीख़-ए-जुनूँ ये है कि हर दौर-ए-ख़िरद में
मैं ने कभी नज़र न की दिल-कशी-ए-हयात पर