बड़ी हसरत से इंसाँ बचपने को याद करता है
ये फल पक कर दोबारा चाहता है ख़ाम हो जाए
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तारीख़-ए-जुनूँ ये है कि हर दौर-ए-ख़िरद में
गुनाहगार तो रहमत को मुँह दिखा न सका
सलीक़ा जिन को होता है ग़म-ए-दौराँ में जीने का
हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
मैं तिनकों का दामन पकड़ता नहीं हूँ
फ़िक्र-ए-नौ ज़ौक़-ए-तपाँ से आई है
कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी
याद आती रही भुला न सके
मैं अभी से किस तरह उन को बेवफ़ा कहूँ
धड़कनें दिल की गिने ख़ूँ में रवानी माँगे
मेरे लिए क्या है कुछ भी नहीं
आग़ोश-ए-रंग-ओ-बू के फ़साने में कुछ नहीं