दौलत का फ़लक तोड़ के आलम की जबीं पर
मज़दूर की क़िस्मत के सितारे निकल आए
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चिलमन से जो दामन के किनारे निकल आए
ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
हम ने भी निगाहों से उन्हें छू ही लिया है
यही काँटे तो कुछ ख़ुद्दार हैं सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
ज़ाहिद असीर-ए-गेसू-ए-जानाँ न हो सका
हसरत-ए-फ़ैसला-ए-दर्द-ए-जिगर बाक़ी है
अग़्यार को गुल-पैरहनी हम ने अता की
पंखुड़ी कोई गुलिस्ताँ से सबा क्या लाई
'नुशूर' आलूदा-ए-इस्याँ सही पर कौन बाक़ी है
वक़्त का क़ाफ़िला आता है गुज़र जाता है