अग़्यार को गुल-पैरहनी हम ने अता की
अपने लिए फूलों का कफ़न हम ने बनाया
Faiz Ahmad Faiz
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एक रिश्ता भी मोहब्बत का अगर टूट गया
हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
तेज़-तर लहजा-ए-गुफ़्तार किया है हम ने
वक़्त का क़ाफ़िला आता है गुज़र जाता है
हक़ीक़त जिस जगह होती है ताबानी बताती है
किस बेबसी के साथ बसर कर रहा है उम्र
मेरी आँखों में हैं आँसू तेरे दामन में बहार
मैं अभी से किस तरह उन को बेवफ़ा कहूँ
सरक कर आ गईं ज़ुल्फ़ें जो इन मख़मूर आँखों तक
हम रिवायात को पिघला के 'नुशूर'
शौक़ था शबाब का हुस्न पर नज़र गई
ज़िंदगी परछाइयाँ अपनी लिए