हस्ती का नज़ारा क्या कहिए मरता है कोई जीता है कोई
जैसे कि दिवाली हो कि दिया जलता जाए बुझता जाए
Mohsin Naqvi
Habib Jalib
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Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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कितना अजीब-तर है ये रब्त-ए-ज़िंदगानी
मैं तिनकों का दामन पकड़ता नहीं हूँ
नई दुनिया मुजस्सम दिलकशी मालूम होती है
हर ज़र्रा-ए-ख़ाकी को किरन हम ने बनाया
सलीक़ा जिन को होता है ग़म-ए-दौराँ में जीने का
हुस्न जितना ही सादा होता है
अंजाम-ए-वफ़ा ये है जिस ने भी मोहब्बत की
मआज़-अल्लाह मय-ख़ाने के औराद-ए-सहर-गाही
हज़ार शम्अ फ़रोज़ाँ हो रौशनी के लिए
चमन को ख़ार-ओ-ख़स-ए-आशियाँ से आर न हो
ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
ये नज़्म-ए-गुरेज़ाँ है बरहम-ज़दनी पहले