उदासी आज भी वैसी है जैसे पहले थी
मकीं बदलते रहे हैं मकाँ नहीं बदला
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कार-ए-दुनिया के तक़ाज़ों को निभाने में कटी
ख़ुश्क दरियाओं को पानी दे ख़ुदा
होंट खुलें तो निकले वाह
हवा-ए-शाम न जाने कहाँ से आती है
कब तक उस का हिज्र मनाता सहरा छोड़ दिया
ख़्वाब आँखों में सवाली ही रहे
ये शहर-ए-तरब देख बयाबान में क्या है
यक़ीनन हम को घर अच्छे लगे थे
रंग हवा में फैल रहा है
कभी कभी ये सूना-पन खल जाता है
ज़मीन बार-हा बदली ज़माँ नहीं बदला
पहले इक मौज-ए-हवा आती है