वो माह जल्वा दिखा कर हमें हुआ रू-पोश
ये आरज़ू है कि निकले कहीं दोबारा चाँद
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ये रूपोशी नहीं है सूरत-ए-मर्दुम-शनासी है
क्यूँ आ गए हैं बज़्म-ए-ज़ुहूर-ओ-नुमूद में
तालिब-ए-इश्क़ है क्या सालिक-ए-उर्यां न हुआ
आप हैं महव-ए-हुस्न-ओ-रानाई
किया है चश्म-ए-मुरव्वत ने आज माइल-ए-मेहर
वाह क्या हम को बनाया और बना कर रह गए
देख कर तेरी आलम-आराई
बुराई भलाई की सूरत हुई
वो आए निगार मैं न मानूँ
तअय्युन तसलसुल है नक़्श-ए-बदन का
हुआ न क़ुर्ब-ए-तअ'ल्लुक़ का इख़तिसास यहाँ
अदू-ए-ख़ीरा-सराब हो गया बड़ा ख़ुर्रांट