ये रूपोशी नहीं है सूरत-ए-मर्दुम-शनासी है
हर इक ना-अहल तेरा तालिब-ए-दीदार बन जाता
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तू ही अनीस-ए-ग़म रहा नाला-ए-ग़म-गुसार-ए-शब
वो पास है तेरे दूर नहीं तू वासिल है महजूर नहीं
कर सैर अपने दिल की है नूर का तमाशा
अपने जुनूँ-कदे से निकलता ही अब नहीं
किस रंग में बयान करें माजरा-ए-क़ल्ब
वो आए निगार मैं न मानूँ
इश्क़ माशूक़ का है पैदाई
हम से जो अहद था वो अहद-शिकन भूल गया
ग़ज़ब के तैश में वो शोख़-दीदा आया था
उश्शाक़ जो तसव्वुर-ए-बर्ज़ख़ के हो गए
जम गए राह में हम नक़्श-ए-क़दम की सूरत
ये रिसाला इश्क़ का है अदक़ तिरे ग़ौर करने का है सबक़