इश्क़ माशूक़ का है पैदाई
आशिक़ी ने ये शक्ल दिखलाई
इश्क़-ओ-माशूक़ दोनों आशिक़ हैं
ख़ुद-तमाशा ओ ख़ुद-तमाशाई
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वो पास है तेरे दूर नहीं तू वासिल है महजूर नहीं
नफ़्स-ए-मतलब ही मिरा फ़ौत हुआ जाता है
जान-ओ-दिल था नज़्र तेरी कर चुका
तुझे ख़ल्क़ कहती है ख़ुद-नुमा तुझे हम से क्यूँ ये हिजाब है
हस्ती-ए-नीस्त-नुमा दीदा-ए-हैराँ समझा
अगर इतना न तू अय्यार होता
बुराई भलाई की सूरत हुई
कहाँ है वो गुल-ए-ख़ंदाँ हमें नहीं मालूम
तुम ने देखा ही नहीं है वो निज़ाम-ए-मख़्सूस
हरीस हो न जहाँ में न अपना जी भटका
निगह-ए-नाज़ से इस चुस्त क़बा ने देखा
जज़्बा-ए-इश्क़ चाहिए सूफ़ी