नफ़्स-ए-मतलब ही मिरा फ़ौत हुआ जाता है
जान-ए-जानाँ ये मुनासिब नहीं घबरा देना
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हुआ न क़ुर्ब-ए-तअ'ल्लुक़ का इख़तिसास यहाँ
अपने जुनूँ-कदे से निकलता ही अब नहीं
छू ले सबा जो आ के मिरे गुल-बदन के पाँव
तलाश जिस नूर की है तुझ को छुपा है तेरे बदन के अंदर
किया है चश्म-ए-मुरव्वत ने आज माइल-ए-मेहर
ये रिसाला इश्क़ का है अदक़ तिरे ग़ौर करने का है सबक़
वुसअ'त-ए-मशरब-ए-रिंदाँ का नहीं है महरम
ये रूपोशी नहीं है सूरत-ए-मर्दुम-शनासी है
मुझ से कहते हो क्या कहेंगे आप
मेरी क़िस्मत की कजी का अक्स है
गया सब रंज-ओ-ग़म कुंज-ए-क़फ़स का
दिल-ए-ज़िंदा ख़ुद रहनुमा हो गया