ये रिसाला इश्क़ का है अदक़ तिरे ग़ौर करने का है सबक़
कभी देख इस को वरक़ वरक़ मिरा सीना ग़म की किताब है
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क्यूँ आ गए हैं बज़्म-ए-ज़ुहूर-ओ-नुमूद में
नफ़्स-ए-मतलब ही मिरा फ़ौत हुआ जाता है
कर सैर अपने दिल की है नूर का तमाशा
शहीद-ए-अरमाँ पड़े हैं बिस्मिल खड़ा वो तलवार का धनी है
इस शोख़-ए-रम-शिआ'र से कहता सलाम-ए-शौक़
सालिक है गरचे सैर-ए-मक़ामात-ए-दिल-फ़रेब
वो आए निगार मैं न मानूँ
हुआ न क़ुर्ब-ए-तअ'ल्लुक़ का इख़तिसास यहाँ
अपने जुनूँ-कदे से निकलता ही अब नहीं
जान-ओ-दिल था नज़्र तेरी कर चुका
तुझे ख़ल्क़ कहती है ख़ुद-नुमा तुझे हम से क्यूँ ये हिजाब है
दिल भी अब पहलू-तही करने लगा