सालिक है गरचे सैर-ए-मक़ामात-ए-दिल-फ़रेब
जो रुक गए यहाँ वो मक़ाम-ए-ख़तर में हैं
Allama Iqbal
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Gulzar
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नहीं खुलता सबब तबस्सुम का
हुआ न क़ुर्ब-ए-तअ'ल्लुक़ का इख़तिसास यहाँ
जम गए राह में हम नक़्श-ए-क़दम की सूरत
ये रूपोशी नहीं है सूरत-ए-मर्दुम-शनासी है
अपनी सूरत न जब नज़र आई
दिल-सोख़्ता को अपने जलाया ग़ज़ब किया
गया सब रंज-ओ-ग़म कुंज-ए-क़फ़स का
हुए बे-ख़ुद तो बे-ख़ुदी आई
शहीद-ए-अरमाँ पड़े हैं बिस्मिल खड़ा वो तलवार का धनी है
नफ़्स-ए-मतलब ही मिरा फ़ौत हुआ जाता है
फ़लक पे चाँद सितारे निकलने हैं हर शब
मुझ से कहते हो क्या कहेंगे आप