अपने जुनूँ-कदे से निकलता ही अब नहीं
साक़ी जो मय-फ़रोश सर-ए-रहगुज़ार था
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शहीद-ए-अरमाँ पड़े हैं बिस्मिल खड़ा वो तलवार का धनी है
उश्शाक़ जो तसव्वुर-ए-बर्ज़ख़ के हो गए
वो माह जल्वा दिखा कर हमें हुआ रू-पोश
नैरंग-ए-इश्क़ आज तो हो जाए कुछ मदद
जज़्बे में सुलूक और नफ़ी में है जो इसबात
दिल-सोख़्ता को अपने जलाया ग़ज़ब किया
तुझे ख़ल्क़ कहती है ख़ुद-नुमा तुझे हम से क्यूँ ये हिजाब है
दिल भी अब पहलू-तही करने लगा
तू ही अनीस-ए-ग़म रहा नाला-ए-ग़म-गुसार-ए-शब
जज़्बा-ए-इश्क़ चाहिए सूफ़ी
हसरत-ओ-उम्मीद का मातम रहा
वुसअ'त-ए-मशरब-ए-रिंदाँ का नहीं है महरम