जज़्बा-ए-इश्क़ चाहिए सूफ़ी
जो है अफ़्सुर्दा अहल-ए-हाल नहीं
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ये रिसाला इश्क़ का है अदक़ तिरे ग़ौर करने का है सबक़
यही तमन्ना-ए-दिल है उन की जिधर को रुख़ हो उधर को चलिए
दिल-सोख़्ता को अपने जलाया ग़ज़ब किया
जम गए राह में हम नक़्श-ए-क़दम की सूरत
जान-ओ-दिल था नज़्र तेरी कर चुका
वो पास है तेरे दूर नहीं तू वासिल है महजूर नहीं
वो माह जल्वा दिखा कर हमें हुआ रू-पोश
नहीं खुलता सबब तबस्सुम का
गया सब रंज-ओ-ग़म कुंज-ए-क़फ़स का
हसरत-ओ-उम्मीद का मातम रहा
महव-ए-लिक़ा जो हैं मलकूती-ख़िसाल हैं