वुसअ'त-ए-मशरब-ए-रिंदाँ का नहीं है महरम
ज़ाहिद-ए-सादा हमें बे-सर-ओ-सामाँ समझा
Mir Taqi Mir
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Ahmad Faraz
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Allama Iqbal
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तालिब-ए-इश्क़ है क्या सालिक-ए-उर्यां न हुआ
वो पास है तेरे दूर नहीं तू वासिल है महजूर नहीं
ये ज़मज़मा तुयूर-ए-ख़ुश-आहंग का नहीं
जान-ओ-दिल था नज़्र तेरी कर चुका
हुआ न क़ुर्ब-ए-तअ'ल्लुक़ का इख़तिसास यहाँ
तुम ने देखा ही नहीं है वो निज़ाम-ए-मख़्सूस
किस रंग में बयान करें माजरा-ए-क़ल्ब
सिक्का अपना नहीं जमता है तुम्हारे दिल पर
दाग़-ए-ग़म-ए-फ़िराक़ मिटाया न जाएगा
वाह क्या हम को बनाया और बना कर रह गए
निगह-ए-नाज़ से इस चुस्त क़बा ने देखा
वो आए निगार मैं न मानूँ