अश्क आँख में फिर अटक रहा है
ख़ुद अपने से मिलने का तो यारा न था मुझ में
जगा सके न तिरे लब लकीर ऐसी थी
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
रस्ता भी कठिन धूप में शिद्दत भी बहुत थी
वाहिमा
चराग़-ए-राह बुझा क्या कि रहनुमा भी गया
कुछ ख़बर लाई तो है बाद-ए-बहारी उस की
वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया
अब उन दरीचों पे गहरे दबीज़ पर्दे हैं
क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
मुझे मत बताना