बहुत लम्बी मसाफ़त है बदन की
मुसाफ़िर मुब्तदी थकने लगा है
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कहें हैं रेख़्ता पंजाब में नज़र-साहिब
इक पल की दौड़ धूप में ऐसा थका बदन
लफ़्ज़ छिन जाएँ मगर तहरीर हो रौशन जहाँ
ख़ुश्क हो जाए न झरने वाला
कुछ न कुछ अहद-ए-मोहब्बत का निशाँ रह जाए
हो रहा है पस-ए-दीवार भी कुछ
बीते बरस की याद का पैकर उतार दे
दिल-ए-तबाह की ईज़ा-परस्तियाँ मालूम
सूरज चढ़ा तो दिल को अजब वहम सा हुआ
उम्र भर शौक़ का दफ़्तर लिक्खा
जी चाहता है हाथ लगा कर भी देख लें
ऊँट सब वापस फिरे आगे कोई सहरा न था