हवा ख़फ़ा थी मगर इतनी संग-दिल भी न थी
हमीं को शम्अ जलाने का हौसला न हुआ
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तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे
न सवाल-ए-जाम न ज़िक्र-ए-मय उसी बाँकपन से चले गए
घर बसा कर भी मुसाफ़िर के मुसाफ़िर ठहरे
काग़ज़ काग़ज़ धूल उड़ेगी फ़न बंजर हो जाएगा
तू इस तरह से मिरे साथ बेवफ़ाई कर
अहद-ए-जुनूँ में बैठे बैठे जो ग़ज़लें लिख डाली थीं
तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
रास्ता देख के चल वर्ना ये दिन ऐसे हैं
वो एक ख़ेमा-ए-शब जिस का नाम दुनिया था
दिल बे-तब-ओ-ताब हो गया है
फिर मिरे सर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी
इस दौर की पलकों पे हैं आँसू की तरह हम