परवाने की शब की शाम हूँ मैं
या रोज़ की शम्अ' की सहर हूँ
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कूचा तिरा नशे की ये शिद्दत जहाँ से लाग
मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या
याँ सदा नीश-ए-बला वक़्फ़-ए-जिगर-रेशी है
हर उज़्व है दिल-फ़रेब तेरा
नासेहा कर न इसे सी के पशेमाँ मुझ को
न पूछ ''गिर्या-ए-ख़ूँ का तिरे है क्या बाइस''
हो गर ऐसे ही मिरी शक्ल से बेज़ार बहुत
न दिल भरा है न अब नम रहा है आँखों में
पास-ए-इख़्लास सख़्त है तकलीफ़
हम मूए फिरते हैं और ख़्वाहिश-ए-जाँ है उस को
ऐ इश्क़ मिरे दोश पे तू बोझ रख अपना