वरक़ वरक़ तुझे तहरीर करता रहता हूँ
मैं ज़िंदगी तिरी तशहीर करता रहता हूँ
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बंद है आज भी तर्सील पे राह-ए-अल्फ़ाज़
रोज़ इक ख़्वाब-ए-मुसलसल और मैं
हवा नमनाक होती जा रही है
किस को मालूम था इक रोज़ कि यूँ होना था
ब-जुज़ मता-ए-दिल-ए-लख़्त-लख़्त कुछ भी नहीं
तमाम शहर में है आम कारोबार-ए-हवस
सफ़र ये मेरा अजब इम्तिहान चाहता है
कोई सुबूत न होगा तुम्हारे होने का