एक उजड़ी हुई हसरत है कि पागल हो कर
बैन हर शहर में करती हुई देखी गई है
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मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी
आँख सहमी हुई डरती हुई देखी गई है
मैं अपनी आँख को उस का जहान दे दूँ क्या
तू ख़ुद अपनी मिसाल है वो तो है
अगरचे वक़्त मुनाजात करने वाला था
रात मैं शाना-ए-इदराक से लग कर सोया
एक मज्ज़ूब उदासी मेरे अंदर गुम है
आना जाना है तो क़ामत से तुम आओ जाओ
लम्स को छोड़ के ख़ुशबू पे क़नाअ'त नहीं करने वाला
किस ने रोका है सर-ए-राह-ए-मोहब्बत तुम को
धूप छाँव का कोई खेल है बीनाई भी