धूप छाँव का कोई खेल है बीनाई भी
आँख को ढूँड के लाया हूँ तो मंज़र गुम है
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एक मज्ज़ूब उदासी मेरे अंदर गुम है
ख़्वाब में या ख़याल में मुझे मिल
किस ने रोका है सर-ए-राह-ए-मोहब्बत तुम को
रात मैं शाना-ए-इदराक से लग कर सोया
आईने को तोड़ा है तो मालूम हुआ है
ज़मीं का बोझ और उस पर ये आसमान का बोझ
लम्स को छोड़ के ख़ुशबू पे क़नाअ'त नहीं करने वाला
पड़ा हुआ हूँ मैं सज्दे में कह नहीं पाता
मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी
एक दिन अपना सहीफ़ा मुझ पे नाज़िल हो गया
पेड़ सूखा हर्फ़ का और फ़ाख़ताएँ मर गईं