पड़ा हुआ हूँ मैं सज्दे में कह नहीं पाता
वो बात जिस से कि हल्का हो कुछ ज़बान का बोझ
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मैं अपनी आँख को उस का जहान दे दूँ क्या
धूप छाँव का कोई खेल है बीनाई भी
एक दिन अपना सहीफ़ा मुझ पे नाज़िल हो गया
आईने को तोड़ा है तो मालूम हुआ है
पेड़ सूखा हर्फ़ का और फ़ाख़ताएँ मर गईं
आना जाना है तो क़ामत से तुम आओ जाओ
एक मज्ज़ूब उदासी मेरे अंदर गुम है
लम्स को छोड़ के ख़ुशबू पे क़नाअ'त नहीं करने वाला
कभी जो ख़ाक की तक़रीब-ए-रू-नुमाई हुई
मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी
ख़्वाब में या ख़याल में मुझे मिल
एक उजड़ी हुई हसरत है कि पागल हो कर