आईने को तोड़ा है तो मालूम हुआ है
गुज़रा हूँ किसी दश्त-ए-ख़तरनाक से आगे
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पड़ा हुआ हूँ मैं सज्दे में कह नहीं पाता
एक उजड़ी हुई हसरत है कि पागल हो कर
एक मज्ज़ूब उदासी मेरे अंदर गुम है
मैं सामने से उठा और लौ लरज़ने लगी
अगरचे वक़्त मुनाजात करने वाला था
कभी जो ख़ाक की तक़रीब-ए-रू-नुमाई हुई
किस ने रोका है सर-ए-राह-ए-मोहब्बत तुम को
रात मैं शाना-ए-इदराक से लग कर सोया
एक दिन अपना सहीफ़ा मुझ पे नाज़िल हो गया
ज़मीं का बोझ और उस पर ये आसमान का बोझ
वहशत में निकल आया हूँ इदराक से आगे